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Thursday, October 16, 2008

माओवादी प्रचंड ने भगवा नेताओं से बनाया पुल

Published on :-Navbharattimes.com,18 Sep 2008,

राजशाही और हिन्दू राष्ट्र का संवैधानिक स्थान समाप्त होने के बाद उभरे संघीय गणतंत्र नेपाल के पहले माओवादी प्रधानमंत्री प्रचंड की भारत यात्रा नेपाल के लिए आशा से अधिक सफल रही। भारत में सभी दलों के प्रमुख नेताओं ने उनकी अगवानी की , भारत सरकार ने उन्हें दिल खोलकर सहायता के आश्वासन दिए , उनकी हर मांग पर सकारात्मक रूख दिखाया। यह सब उन माओवादियों के लिए कुछ ज्यादा ही था , जो गत बारह वर्ष , हिंसक आतंकवादी आंदोलन की ताकत के बल पर लोकतांत्रिक ढांचे में अपनी प्रभुता पाए हैं।

बारह वर्ष प्रचंड ने निरंतर भारत विरोध पर बिताए , पर इस यात्रा में उस अतीत की कोई परछाई नहीं दिखी। प्रचंड ने भी अपनी माओवादी गुरिल्ला छवि को लोकतांत्रिक , विनम्र और संस्कारी भारत मित्र की छवि में बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनको इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि भारत आकर वह एक आत्मीय मित्र के नाते दिखे। उन्होंने कूटनीतिक जोखिम उठाते हुए यह भी बयान दिया कि नेपाल के लिए भारत का महत्व चीन से ज्यादा है।

सोनिया गांधी से मुलाकात में उन्होंने स्वर्गीय निर्मला देशपांडे की भावभीनी चर्चा से बातचीत को ‘ घरेलू ’ मोड़ दिया , तो लालकृष्ण आडवाणी को पशुपतिनाथ व जनकपुर धाम की यात्रा का न्यौता देते हुए इतने भावुक हो गए कि कह बैठे , ' आपसे मिलकर मुझे ऐसा लगा मानो अपने ‘ गार्डियन ’ ( अभिभावक ) से मिल रहा हूं। बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के यहां बीजेपी और आरएसएस के वरिष्ठ जन की उपस्थिति एक अत्यंत आसामान्य बात कही जाएगी।

अब तक प्रचंड हिन्दू परिवार द्वारा सबसे खतरनाक हिन्दू - विरोधी कम्युनिस्ट आतंकवादी कहकर निरूपित किए जाते रहे थे। यहां प्रचंड ने कहा , ' भारत व नेपाल के बीच जनकपुर और अयोध्या का संबंध है। राम व सीता का संबंध है। आर्थिक राजनीति , धरातल के ऊपर भावनात्मक है। हमारी मिट्टी की सुगंध एक है।

' राजनाथ सिंह ने प्रचंड की प्रशंसा में उनके नाम में शामिल ‘ कमल ’ को रेखांकित करते हुए साझी विरासत पर बल दिया और कहा आज हमारी अनेक गलतफहमियां दूर हो गईं। किसी कम्युनिस्ट नेता के लोकतांत्रिक होते ही भारत में इससे बढ़कर कोई चमत्कारिक सफलता क्या हो सकती है ?

प्रचंड के साथ आए प्रतिनिधिमंडल को काठमांडू से दिल्ली रवाना होते समय संदेह था कि क्या भारत में उनका स्वागत गर्मजोशी से होगा ? आखिरकार भारत हिन्दू बहुसंख्यक देश है और प्रचंड के नेतृत्व में नेपाल के माओवादी कम्युनिस्ट अब तक केवल हिन्दू प्रतीकों और श्रद्धा केन्द्रों को ही निशाना बनाते आए थे। माओवादियों के ही दबाव में गिरिजा प्रसाद कोइराला की अंतरिम सरकार ने संविधान द्वारा मान्य नेपाल की हिन्दू राष्ट्र की स्थिति को समाप्त करने का निर्णय लिया।

ऐसी परिस्थिति में प्रधानमंत्री प्रचंड की भारत यात्रा स्वाभाविक रूप से संदेह में लिपटी रही हो , तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। लेकिन , आश्चर्य की बात यह हुई कि हिन्दू बहुल भारत के किसी भी संगठन ने प्रधानमंत्री के नाते प्रचंड की पहली भारत यात्रा के समय किसी किस्म का कोई क्षोभ , दुख , क्रोध या अप्रसन्नता का लेश मात्र भी प्रकटीकरण नहीं किया। यह हिन्दू संगठनों की परिपक्वता कही जाएगी।

खास बात यह है कि प्रचंड अपने किसी भी मुद्दे पर झुके नहीं। वे लगातार इस बात पर अडिग रहे कि भारत के साथ सर्वाधिक महत्वपूर्ण 1950 की शांति और मैत्री संधि पर पुनः विचार करके दोबारा लिखा जाना चाहिए और विदेश सचिव ने इसे स्वीकार भी किया। अब इस बारे में विदेश सचिव स्तर की वार्ताएं चलेंगी। नेपाल में सफल नेता की छवि दिखाने हेतु भारत ने प्रचंड को यह बहुत बड़ा उपहार दिया।

हालांकि प्रचंड यह बताने में असमर्थ हैं कि इस संधि में ऐसा क्या है जो नेपाल के अहित में है , जिसे बदले जाने की अनिवार्यता वह महसूस करते हैं। वह सिर्फ इतना कहते हैं कि चूंकि यह संधि बहुत पुरानी हो चुकी है और उस समय की गई थी जब नेपाल में सामंतशाही का शासन था , इसलिए इसे बदला जाना जरूरी है। लेकिन , वह इस बात का जवाब नहीं देते कि नेपाल के साथ चीन की 1960 में जो संधि हुई थी , उस समय भी नेपाल में राजा का शासन था , जो प्रचंड के शब्दों में सामंतशाही का प्रतीक था। इस कारण भी उस संधि की भी क्यों न समीक्षा की जाए और क्यों न उसे भी बदला जाए ? वह केवल भारत से की गई संधि की मांग क्यों उठाते है ?

प्रचंड चुनावों में स्पष्ट बहुमत न मिल पाने के कारण तीन पार्टियों की गठजोड़ सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं। सरकार में उनके सहयोगी दल हैं कम्युनिस्ट पार्टी , नेपाल एकीकृत माओवादी - लेनिनवादी ( एमाले ) और मधेशी जनाधिकार फोरम। दोनों दल माओवादी विचारधारा के विरोधी हैं , इनके समर्थक तो कतई नहीं। ऐसी स्थिति में प्रचंड के लिए पूरे तौर पर माओवादी विचारधारा के अनुसार सरकार चलाना कितना संभव होगा ?

जो भी हो , देखना यह है कि नेपाल की जनता को इस नवीन परिवर्तन से कुछ लाभ होगा कि नहीं। नेपाल इस समय भयंकर आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहा है। 12 साल चले माओवादी हिंसक आंदोलन के दौरान प्रचंड ने अपनी सहयोगियों , समर्थकों और आम जनता को खुलकर सपने और आश्वासन बांटे थे। प्रचंड के सामने नेपाल की सेना में माओवादी गुरिल्लाओं की भर्ती का भी प्रश्न है - इसका सेना की ओर से विरोध है , पर दूसरी ओर प्रचंड अपने कार्यकर्ताओं को वचन दे चुके हैं।

58 प्रतिशत साक्षरता दर ( महिलाओं की साक्षरता दर 34.9 प्रतिशत ) और प्रति व्यक्ति आय सिर्फ 320 डॉलर पर नेपाल दुनिया के सबसे अधिक निर्धन देशों में गिना जाता है। वहां ढांचागत सुविधाएं न के बराबर हैं तथा एन्जिनियरिंग , मेडिकल , टेक्नॉलजी आदि के क्षेत्र में नेपाल के तेजस्वी और स्वाभिमानी युवकों को या तो भारत में आना पड़ता है या न्यूजीलैंड , ऑस्ट्रेलिया , ब्रिटेन या अमेरिका की ओर देखना पड़ता है।

नेपाल , अमेरिकी और यूरोपीय दानदाता एजंसियों की भी बहुत बड़ी क्रीड़ास्थली बन गया है , जो भारी मात्रा में डॉलर अनुदान के जरिए नेपाल के हिन्दुओं का धर्मान्तरण कर रही हैं। नेपाल के साथ भारत की 1850 किलोमीटर खुली सीमा मदरसों और आतंकवादी गतिविधियों से ग्रस्त है। अभी तक नेपाल जाने के लिए भारतीयों को किसी पासपोर्ट या वीज़ा की आवश्यकता नहीं होती थी। परंतु सुरक्षा की दृष्टि से अब इस स्थिति में शीघ्र ही परिवर्तन करना पड़ सकता है।

विशेषकर भारत में जाली नोटों के प्रसार और जिहादी गतिविधियों को संचालित करने के लिए नेपाल आईएसआई और बांग्लादेशी जिहादियों का भी केन्द्र है। क्या इन सब पर नई सरकार नियंत्रण रख पाएगी। जो भी हो , असामान्य पड़ोसी देश के विश्वास पर विश्वास रखते हुए चलें , यही दिल्ली व काठमांडू के बीच वर्तमान राजनय की मांग है।

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