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Thursday, October 16, 2008

उपेक्षित और असहाय जम्मू

Published on :-Dainik Jagran, Aug 05, 2008
एक माह से जम्मू दहक रहा है। सेना की गश्त, गोलीबारी, क‌र्फ्य के बीच गूंजते असंतोष के स्वर। आखिर भारत में देशभक्ति की कीमत घर से उजड़ना या जान देना क्यों हैं? पहले कश्मीरी पंडितों को सिर्फ इसलिए घर से निकाल बाहर किया गया, क्योंकि वे तिरंगे के प्रति निष्ठावान थे। इससे पहले जून 1953 को श्यामा प्रसाद मुखर्जी की श्रीनगर शासन के अंतर्गत रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु घोषित कर दी गई, क्योंकि वे कश्मीर में देशभक्ति का जज्बा बुलंद कर रहे थे। वे कहते थे कि जम्मू-कश्मीर में सिर्फ तिरंगा रहेगा और कोई झंडा नहीं। इस साल 23 जुलाई को 35 वर्र्षीय कुलदीप कुमार डोगरा ने देशभक्ति की आवाज बुलंद करते हुए अपनी जान दे दी। इस तरह जान देना अस्वीकार्य है, लेकिन कुलदीप के आत्मोसर्ग ने हिंदू हनन में सेक्युलर भूमिका को उजागर किया और जम्मू में एक अभूतपूर्व विरोध की लहर पैदा कर दी।

कुलदीप डोगरा की देह जम्मू कश्मीर पुलिस जबरदस्ती उठा ले गई और सुबह ढाई बजे शराब तथा टायर डालकर जलाने का प्रयास किया तो उसके गांव के लोग आ गए। आखिरकार कुलदीप की देह घरवालों को सौंपी गई। क्या मानवाधिकार वाले सिर्फ आतंकियों के अधिकारों पर बोलने का ठेका लिए हैं? जम्मू कश्मीर सरकार भारत की है या अन्य देश की? आखिर शेष देश में इसकी क्या प्रतिध्वनि हुई? ऐसा लगता है हमारी भारतीयता का समग्र फलक ही चटकने लगा है। कश्मीर के पांच लाख शरणार्थी अभी भी अपने देश में बेघर और अनाथ जैसे घूम रहे हैं। जम्मू का दृश्य बयान करना बहुत कठिन है। जो सड़कें तीर्थ यात्रियों और स्थानीय नागरिकों के आवागमन और काम-काज से भरी हुआ करती थीं आज वहां मीलों दूर तक भांय-भांय करता दहशत भरा सन्नाटा पसरा हुआ है। सैनिकों के बूटों की खट-खट आवाज कहीं-कहीं सन्नाटे को तोड़ती है। घरों में आटा नहीं है, चावल नहीं है, पानी नहीं है। खाना बनाना तक मुश्किल हो गया है। रोजमर्रा का सामान नहीं मिल रहा है। मुहल्लों के भीतर जाने पर सिर्फ फुसफुसाहटें सुनाई देती हैं। जम्मू के नागरिक अब घर में भी जोर से बोलना मानो भूल गए हैं। बाजार बंद हैं, दिलों में मातम है। सब एक सवाल पूछ रहे हैं कि जम्मू कश्मीर हिंदुस्तान का है या नहीं? अगर है तो वहां आज भी दो झंडे क्यों लहराए जाते हैं? आखिर क्यों भारतीय तीर्थ यात्रियों के लिए वह जमीन नहीं दी गई जो बंजर थी और जहां घास का एक तिनका भी नहीं उगता। इसे स्वयं जम्मू कश्मीर सरकार ने उच्च न्यायालय के निर्देश पर अमरनाथ श्राइन बोर्ड को स्थानांतरित किया था। इस जमीन पर कोई स्थायी रूप से रहने वाला नहीं था। इस जमीन का उपयोग वर्ष में सिर्फ दो महीने के लिए होने वाला था और इसका लाभ स्थानीय कश्मीरी नागरिकों को मिलने वाला था? जम्मू कश्मीर में हिंदुओं के दो बड़े तीर्थ स्थान हैं-माता वैष्णो देवी और अमरनाथजी। इन दोनों यात्राओं पर हर वर्ष करीब 70 लाख से अधिक तीर्थ यात्री जाते हैं। वे रास्ते में करोड़ों रुपये खर्च करते हैं। इसका पूरा लाभ जम्मू-कश्मीर की अर्थव्यवस्था को होता है। जिहादियों के कारण जम्मू कश्मीर में पर्यटक आने वैसे ही कम हो गए हैं। अगर हिंदू तीर्थ यात्री जम्मू कश्मीर न आएं तो वहां की सारी अर्थव्यवस्था ठप्प हो सकती है। अभी भी जम्मू-कश्मीर को शेष देश को मिलने वाले अनुदानों से औसतन दस गुना ज्यादा अनुदान और सहायता मिलती है। अपनी हर गलती का दोष वह भारत सरकार पर थोपते हैं यानी खाना भी हमारा और गुर्राना भी हम पर। पूरी रियासत के तीन हिस्से हैं-जम्मू, घाटी और लद्दाख। श्रीनगर के राजनेता न केवल अनुदान का अधिकांश हिस्सा सबसे छोटे भाग और सबसे कम जनसंख्या पर खर्च करते हैं,बल्कि जम्मू और लद्दाख के नागरिकों के साथ भेदभाव भी करते हैं। जम्मू कश्मीर का कुल वैधानिक क्षेत्रफल 222236 वर्ग किलोमीटर है। इसमें से 78114 वर्ग किमी पाकिस्तान के अवैध कब्जे में है और 37555 वर्ग किमी चीन ने कब्जाया हुआ है। लद्दाख का क्षेत्रफल 59211 वर्ग किमी और जम्मू का 26293 वर्ग किमी है। घाटी का क्षेत्रफल है 15833 वर्ग किमी। 1963 में पाकिस्तान ने अवैध कब्जे के कश्मीर में से 5180 वर्ग किमी चीन को भेंट दे दिया था। क्या आपने कभी सुना है कि कश्मीर के उन जाबांज नेताओं ने जो हिंदू तीर्थ यात्रियों को एक इंच जमीन भी न देने के लिए अराजकता फैला देते हैं, पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर को वापस लेने के लिए धरना या प्रदर्शन दिया हो? हजारों वर्ग किमी जमीन पाकिस्तान के कब्जे में चली जाए तो उस पर खामोश रहना और हिंदू तीर्थ यात्रियों के लिए जमीन देने पर जान की बाजी लगाने की धमकियां देना किस मानसिकता का द्योतक है?

जम्मू और कश्मीर घाटी में लगभग बराबर की संख्या में मतदाता हैं, लेकिन जम्मू को सिर्फ दो लोकसभा सीट दी गई हैं और घाटी को तीन। पूरे राज्य की आय का 70 प्रतिशत से अधिक जम्मू से मिलने वाले राजस्व से प्राप्त होता है और घाटी से लगभग 30 प्रतिशत, लेकिन खर्च करते समय जम्मू पर कुल राजस्व का 30 प्रतिशत खर्च किया जाता है और घाटी पर 70 प्रतिशत। लद्दाख के साथ श्रीनगर के शासकों का भेदभाव सीमातिक्रमण कर गया है। लद्दाख बौद्ध संघ ने केंद्र को ऐसे दर्जनों ज्ञापन दिए जिनमें लद्दाख के बौद्ध युवकों को परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भी कश्मीरी प्रशासनिक सेवा में न लेने, मेडिकल, इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला न देने जैसे भेदभाव के अनेक आरोप लगाए। सच यह है कि योजनाबद्ध तरीके से लेह के बौद्ध समाज को अल्पमत में किए जाने का षड्यंत्र चल रहा है। वास्तव में पूरे प्रदेश में ही भारत लगातार सिकुड़ता गया है। यह परिस्थिति दिल्ली के रीढ़हीन शासकों द्वारा पनपाई और बढ़ाई गई है। जम्मू कश्मीर भारत मा का भाल है। वहां का दर्द भारत का दर्द है। यदि हम वहां का दर्द नहींमहसूस करेंगे तो शेष भारत में भी बंटवारे के बीज फैलेंगे।

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